श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दास जी की मुख्यतः श्रीमद बेनीमाधवदासजी विरचित मूल गोसाई चरितपर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
राम कीन्ह बिश्राम निसि प्रात प्रयाग नहाइ ।
चले सहित सिय लखन जन मुदित मुनिहि सिरु नाइ ॥
श्रीरघुकुलचंद्र लखन जानकी सहित भूमिभारपरिहारार्थ वनप्रवास कर रहे थे । महर्षि वाल्मीकिजी से भेंट करके तथा केवटपर अनुग्रह कर वे महर्षि भरद्वाज के आश्रम आए । उनसे भेंट कर वहीं पर रात्री विश्राम कर प्रातःकाल उन्होंने प्रयाग तिर्थ त्रिवेणी मे स्नान किया और मुनीको सिर नवाकर आगे प्रस्थित हुए ।
यमुनातीर वासी लोग इन तीनों की अलौकीक शोभा देखने अपना काम भूलकर दौडे और इस त्रय की त्रिभुवनमोहीनी छबी को देखकर अपने भाग्य की बडाई करने लगे । वे उन लोगों से प्रेमपुर्वक वार्ता कर रहे थे ।
तेहि अवसर एक तापसु आवा ।
तेज पुंज लघुबयस सुहावा ॥
कबि अलखित गति बेषु बिरागी ।
मन क्रम बचन राम अनुरागी ॥
उसी अवसर पर वहाँ एक तपस्वी आया, जो तेजका पुंज और कम आयु का, और बडा सुंदर था । वो रामचरितमानस का कवि ही था जो अपना परिचय देना नही चाहता था । वो विरक्त के वेषमें था और मन वचन और कर्म से श्रीरामचंद्रजी का प्रेमी था ।
सजल नयन तन पुलकि निज इष्टदेउ पहिचानि ।
परेउ दंड जिमि धरनितल दसा न जाइ बखानि ॥११०॥
अपने इष्टदेव को पहचानकर उसके नेत्रों में जल भर आया और शरीर पुलकित हो गया । वह दण्ड की भाँति पृथ्वीपर गिर पडा, उसकी प्रेमविह्वल दशाका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥
राम सप्रेम पुलकि उर लावा ।
परम रंक जनु पारसु पावा ॥
मनहुँ प्रेमु परमारथु दोऊ ।
मिलत धरें तन कह सबु कोऊ ॥
श्रीरघुपती ने प्रेम से पुलकित होकर उसको हृदय से लगा लिया। उस तापस को ऐसा आनंद हुआ मानो कोई महादरिद्री मनुष्य पारस पा गया हो । उपस्थित लोग कह उठे मानो प्रेम और परमार्थ मुर्तिमान होकर परस्पर मिल रहे हो ।
बहुरि लखन पायन्ह सोइ लागा ।
लीन्ह उठाइ उमगि अनुरागा ॥
पुनि सिय चरन धूरि धरि सीसा ।
जननि जानि सिसु दीन्हि असीसा ॥
फिर वह लक्ष्मणजीके चरणों लगा । उन्होंने प्रेमसे उमँगकर उसको उठा लिया । फिर उसने सीताजीकी चरणधूलिको अपने सिरपर धारण किया । माता सीताजीने भी उसे अपना छोटा बच्चा जानकर आशिर्वाद दिया ॥
कीन्ह निषाद दण्डवत तेही ।
मिलेउ मुदित लखि राम सनेही ॥
पिअत नयन पुट रुपु पियूषा ।
मुदित सुअसनु पाइ जिमि भूखा ॥
फिर निषादराज ने उसको दण्डवत की । उसे रामप्रेमी जानकर वह उससे आनंदित होकर मिला । वह तपस्वी अपने नेत्ररुपी द्रोणोंसे श्रीरामजीकी सौन्दर्य सुधाका पान करने लगा और ऐसा आनंदित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुंदर भोजन पाकर आनन्दित होता है ।
श्रीरामचरितमानस, अयोध्याकाण्ड,
दोहा १०८ – दोहा ११०-३
श्रीरामचरितमानसके इस प्रसंगसे हमे ज्ञात होता है की श्रीमद गोस्वामी तुलसी दास जी श्रीरघुपति के प्रिय नित्य पार्षद हैं जो कलिकाल के जीवोंको रामसन्मुख करने के लिए प्रकट होते हैं । परंतु त्रेतामे भी जब रघुपति लीला हो रही थी तो उसे प्रत्यक्ष देखने की अपनी इच्छा वो रोक नहीं पाए और बालक का वेष धारण करके वे प्रभुसे जाकर मिले
जय श्री तुलसी दास जी
क्रमशः… (भाग – 2)