श्वेता पुरोहित। नारदजी बोले – हे राजन् ! वैशाख के समान कोई महीना नहीं है, सत्ययुग के समान दूसरा युग नहीं हैं, वेद के समान शास्त्र नहीं, गङ्गाजी जैसा कोई तीर्थ नहीं। जल-दान के समान दूसरा दान नहीं और भार्या के समान दूसरा सुख नहीं, खेती जैसा कोई धन नहीं है और जीवन के समान कोई लाभ नहीं है।
उपवास जैसा दूसरा तप नहीं, दान जैसा सुख और दया के समान दूसरा धर्म तथा नेत्रों के समान कोई ज्योति नहीं है। भोजन के समान कोई तृप्ति, खेती के समान कोई व्यापार, धर्म के समान कोई हितकारी मित्र नहीं और सत्य के समान काई यश नहीं है। आरोग्य समान कोई हर्ष, केशव के समान कोई रक्षक, माधव के तुल्य संसार में कोई पवित्र नहीं है। ऐसा परमोत्तम वैशाख मोस शेषशायी भगवान् को सदा प्यारा है, भगवान् के प्यारे इस महीना को जो लोग बिन व्रत व्यतीत करते हैं। वह सम्पूर्ण धर्मों से बहिष्कृत होकर शीघ्र ही पशुयोनि पाते हैं, जो मनुष्य बिना व्रत किए इस मास को खो देते हैं उनका कुआ बनवाना, बावड़ी बनवाना, बगीचा लगवाना आदि जितने धर्म हैं वे सब वृथा ही हैं उनका कुछ फल नहीं होता है। जो मनुष्य नियम पूर्वक वैशाख मास में भोजन करते हैं वे अवश्य ही विष्णु भगवान की सायुज्य मुक्ति को प्राप्त होते हैं इसमें कोई संदेह नहीं। इसमें सन्देह नहीं । संसार में अनेक प्रकार के दान और व्रत हैं परन्तु उनके करने से शरीर को अत्यन्त परिश्रम होता है। उनसे संसार में बारबार जन्म लेना पड़ता है परन्तु वैशाख मास में केवल स्नान कर लेने से ही प्राणी आवागमन से छूट जाता है।
सब दान करने से जो पुण्य होता है, सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करने से जो फल मिलता है वह सब वैशाख में केवल जलदान करने से ही मिल जाता है । जिसमें जलदान करने की सामर्थ्य न हो वे ऐश्वर्य की इच्छा करने वाले दूसरों से कहकर जलदान करावे, यह कर्म भी सब दानों से अधिक है। तराजू के पलड़े में सब प्रकार के दान और दूसरे जलदान रखकर तोले तो जलदान ही भारी निकलेगा। जो यात्रियों के लिये प्याऊ लगाकर जलदान करता है वह अपने करोड़ों कुलका उद्धार कर विष्णुलोक को जाता है।
हे राजन् ! प्याऊ लगानेसे देवता, पितर और ऋषि सब निस्सन्देह अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। जो प्याऊ लगा थके हुए यात्रियों को सन्तुष्ट करता है उससे ब्रह्मा, विष्णु और शिव सब देवता प्रसन्न होते हैं ।जो जल की इच्छा हो तो जल दान करे, छाया की इच्छा हो तो छत्री दे, और हे राजन् ! जो विजन की इच्छा हो तो वैशाख में पंखा दान करे। जितने दान बताये हैं उनमें जलदान, छत्रदान और और पंखादान सबमें उत्तम हैं इन्हीं का दान वैशाखमास में अवश्य करना चाहिये जो वैशाख के महिना में कुटुम्बी ब्राह्मण को जल से भरा घड़ा नहीं देता। वह चातक की योनि पाता है और जो तृषा से व्याकुल महात्मा को शीतल जलपान कराते हैं उसे ही राजेन्द्र सौ राजसूय यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। जो धूप परिश्रम और पसीना से व्याकुल ब्राह्मण को पंखा से हवा करता है। वह सब पापों से रहित होकर गरुड़ के समान हो जाता है, जो मनुष्य वैशाख में ब्राह्मण को पंखा नहीं देता। वह अनेक प्रकार के वात रोगों से पीड़ित हो नरक भोगता है। जो थके हुए ब्राह्मण को वस्त्र से हवा करता है वह सब पापों से छूट विष्णु भगवान् की सायुज्य (मुक्ति) पाता है |
जो शुद्ध मन से ताड़ का पंखा दान करते हैं वे सब पापों से छूट विष्णुलोक को जाते हैं। तुरन्त श्रम दूर करने वाले पंखे का दान नहीं करने वाले अनेक प्रकार की नरक यातनाएँ भोगकर संसार में पापी होते हैं। हे राजेन्द्र ! आध्यात्मिक दुःख की शान्ति के निमित्त वैशाख मास में छत्री दान करना उचित है जो मनुष्य विष्णु भगावान् के प्यारे इस वैशाख मास में छत्री दान नहीं करते उनको कहीं छाया नहीं मिलती और वे महा क्रूर पिशाच बन पृथ्वी पर घूमते हैं।
वैशाख में जो खड़ाऊँ दान करते हैं वे यम दूतों का तिरस्कार कर विष्णुलोक को जाते हैं। जो वैशाखमास में जूता दान करते हैं उन्हें नरक की यातना नहीं भोगनी पड़ती न उसे संसार के दुःख सताते हैं। ब्राह्मण के याचना करने पर खड़ाऊँ दान करने वाला पृथ्वी पर करोड़ जन्म तक राजा होता है। जो मार्ग में श्रम को दूर करने के लिए स्थान बनवाता है
उनका फल वर्णन करने में ब्रह्मा भी असमर्थ है। दोपहर को जो कोई अतिथि या ब्राह्मण मिले उसको भोजन करने का फल ब्रह्माजी भी वर्णन नहीं कर सकते हैं। हे राजन ! अन्नदान मनुष्य को तत्काल तृप्ति करने वाला है संसार में अन्नदान के समान कोई दान नहीं है जो मनुष्य मार्ग से थके हुए ब्राह्मण को आश्रय देता है उसके पुण्य फल के कहने की ब्रह्मा में सामर्थ्य नहीं है। भूखे मनुष्य को, स्त्री, पुत्र, घर, वस्त्र, अलंकार, आभूषण कुछ भी अच्छे नहीं लगते हैं, पेट भरने पर ही सब अच्छे लगते हैं इसलिये अन्नदान के समान न कुछ हुआ न आगे होगा जो वैशाख में थके हुए ब्राह्मण को अन्न का दान नहीं देता। वह पिशाच बनकर पृथ्वी पर अपना ही मास खाता फिरता है इसलिये ब्राह्मण को यथा शक्ति अन्न देना उचित है। हे राजन् ! अन्न दाता मातापिता को भी भुला देता है दानी ही को अपना सर्वस्व समझने लगता है इससे त्रिलोकी में सब अन्न की ही प्रशंसा करते हैं। माता पिता तो केवल जन्म देते हैं परन्तु पण्डित लोग संसार में अन्न के दानी को ही पिता कहते हैं। हे राजन् ! अन्न दाता में सब धर्म निवास करते हैं।
इति श्रीस्कन्दपुराणे वैशाखमाहात्म्ये नारदाम्बरीषसंवादे दाननिरूपणं नाम द्वितीयोऽध्यायः