श्वेता पुरोहित। पूर्वकाल की बात है, मणिमती नगरी में इल्वल नामक दैत्य रहता था। वातापि उसका छोटा भाई था। एक दिन दितिनन्दन इल्वल ने एक तपस्वी ब्राह्मण से कहा- ‘भगवन्! आप मुझे ऐसा पुत्र दें, जो इन्द्र के समान पराक्रमी हो।’ उन ब्राह्मणदेवता ने इल्वल को इन्द्रके समान पुत्र नहीं दिया। इससे वह असुर उन ब्राह्मण देवता पर बहुत कुपित हो उठा। तभी से इल्वल दैत्य क्रोध में भरकर ब्राह्मणों की हत्या करने लगा। वह मायावी अपने भाई वातापि को माया से बकरा बना देता था।
वातापि भी इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ था! अतः वह क्षणभर में भेड़ा और बकरा बन जाता था। फिर इल्वल उस भेड़ या बकरे को पकाकर उसका मांस राँधता और किसी ब्राह्मण को खिला देता था। इसके बाद वह ब्राह्मण को मारने की इच्छा करता था।
इल्वल में यह शक्ति थी कि वह जिस किसी भी यमलोक में गये हुए प्राणी को उसका नाम लेकर बुलाता वह पुनः शरीर धारण करके जीवित दिखायी देने लगता था ।
उस दिन वातापि दैत्यको बकरा बनाकर इल्वल उसके मांसका संस्कार किया और उन ब्राह्मणदेवको वह मांस खिलाकर पुनः अपने भाईको पुकारा ।
इल्वल के द्वारा उच्चस्वर से बोली हुई वाणी सुनकर वह अत्यन्त मायावी ब्राह्मणशत्रु बलवान् महादैत्य वातापि उस ब्राह्मण की पसली को फाड़कर हँसता हुआ निकल आया। इस प्रकार दुष्टहृदय इल्वल दैत्य बार-बार ब्राह्मणोंको भोजन कराकर अपने भाईद्वारा उनकी हिंसा करा देता था (इसीलिये अगस्त्यमुनिने वातापिको नष्ट किया था)।
इन्हीं दिनों भगवान् अगस्त्यमुनि कहीं चले जा रहे थे। उन्होंने एक जगह अपने पितरों को देखा जो एक गड्ढेमें नीचे मुँह किये लटक रहे थे। तब उन लटकते हुए पितरों से अगस्त्यजी ने पूछा —‘आपलोग यहाँ किसलिए नीचे मुँह किये काँपते हुए-से लटक रहे हैं?’ यह सुनकर उन वेदवादी पितरोंने उत्तर दिया -‘संतानपरम्पराके लोपकी सम्भावना के कारण हमारी यह दुर्दशा हो रही है’।
उन्होंने अगस्त्य के पूछने पर बताया कि ‘हम तुम्हारे ही पितर हैं। संतान के इच्छुक होकर इस गड्ढेमें लटक रहे हैं’। ‘अगस्त्य! यदि तुम हमारे लिये उत्तम संतान उत्पन्न कर सको तो हम इस नरकसे छुटकारा पा सकते हैं और बेटा! तुम्हें भी सद्गति प्राप्त होगी’। तब सत्यधर्मपरायण तेजस्वी अगस्त्य ने उनसे कहा –‘पितरो! मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूँगा। आपकी मानसिक चिन्ता दूर हो जानी चाहिये’।
तब भगवान् महर्षि अगस्त्य ने संतानोत्पादन की चिन्ता करते हुए अपने अनुरूप संतान को गर्भ में धारण करने के लिये योग्य पत्नी का अनुसंधान किया, परंतु उन्हें कोई योग्य स्त्री दिखायी नहीं दी।
तब उन्होंने एक-एक जन्तु के उत्तमोत्तम अंगों का भावनाद्वारा संग्रह करके उन सब के द्वारा एक परम सुन्दर स्त्रीका निर्माण किया।
उन दिनों विदर्भराज पुत्र के लिये तपस्या कर रहे थे। महातपस्वी अगस्त्यमुनि ने अपने लिये निर्मित की हुई वह स्त्री राजा को दे दी। उस सुन्दरी कन्याका उस राजभवन में बिजली के समान प्रादुर्भाव हुआ। वह शरीर से प्रकाशमान हो रही थी। उसका मुख बहुत सुन्दर था, वह राजकन्या वहाँ दिनोदिन बढ़ने लगी। राजा विदर्भ ने उस कन्या के उत्पन्न होते ह हर्ष में भरकर ब्राह्मणों को यह शुभ संवाद सुनाया।
उस समय सब ब्राह्मणों ने राजा का अभिनन्दन किया और उस कन्या का नाम ‘लोपामुद्रा’ रख दिया। उत्तम रूप धारण करनेवाली वह राजकुमारी जल में कमलिनी तथा यज्ञवेदी पर प्रज्वलित शुभ्र अग्निशिखा की भाँति शीघ्रतापूर्वक बढ़ने लगी।
जब उसने युवावस्था में पदार्पण किया, उस समय उस कल्याणी कन्या को वस्त्राभूषणों से विभूषित सौ सुन्दरी कन्याएँ और सौ दासियाँ उसकी आज्ञा के अधीन होकर घेरे रहतीं और उसकी सेवा किया करती थीं। सौ दासियों और सौ कन्याओं के बीच में वह तेजस्विनी कन्या आकाश में सूर्य की प्रभा तथा नक्षत्रों में रोहिणी के समान सुशोभित होती थी। यद्यपि वह युवती और शील एवं सदाचार से सम्पन्न थी तो भी महात्मा अगस्त्य के भय से किसी राजकुमार ने उसका वरण नहीं किया। वह सत्यवती राजकुमारी रूप में अप्सराओं से भी बढ़कर थी। उसने अपने शील-स्वभाव से पिता तथा स्वजनों को संतुष्ट कर दिया था। पिता विदर्भराजकुमारी को युवावस्था में प्रविष्ट हुई देख मन-ही-मन यह विचार करने लगे कि ‘इस कन्या का किसके साथ विवाह करूँ’ ।
जब मुनिवर अगस्त्यजी को यह मालूम हो गया कि विदर्भराजकुमारी मेरी गृहस्थी चलाने के योग्य हो गयी है, तब वे विदर्भ-नरेश के पास जाकर बोले – ‘राजन्! पुत्रोत्पत्ति के लिये मेरा विवाह करने का विचार है। अतः महीपाल! मैं आपकी कन्या का वरण करता हूँ। आप लोपामुद्रा को मुझे दे दीजिये’ ।
मुनिवर अगस्त्यके ऐसा कहने पर विदर्भराज के होश उड़ गये। वे न तो अस्वीकार कर सके और न उन्होंने अपनी कन्या देने की इच्छा ही की तब विदर्भनरेश अपनी पत्नीके पास जाकर बोले -‘प्रिये! ये महर्षि अगस्त्य बड़े शक्तिशाली हैं। यदि कुपित हों तो हमें शाप की अग्नि से भस्म कर सकते हैं’ रानीसहित महाराजको इस प्रकार दुःखी देख लोपामुद्रा उनके पास गयी और समयके अनुसार इस प्रकार बोली – ‘राजन्! आपको मेरे लिये दुःख नहीं मानना चाहिये। पिताजी! आप मुझे अगस्त्यजी की सेवा में दे दें और मेरे द्वारा अपनी रक्षा करें’। पुत्रीकी यह बात सुनकर राजा ने महात्मा अगस्त्यमुनि को विधिपूर्वक अपनी कन्या लोपामुद्रा ब्याह दी।
लोपामुद्रा को पत्नीरूप में पाकर तदनन्तर मुनिश्रेष्ठ भगवान् अगस्त्य अपनी अनुकूल पत्नी के साथ गंगाद्वार (हरिद्वार)- में आकर घोर तपस्या में संलग्न हो गये। लोपामुद्रा बड़ी ही प्रसन्नता और विशेष आदरके साथ पतिदेवकी सेवा करने लगी। शक्तिशाली महर्षि अगस्त्यजी भी अपनी पत्नीपर बड़ा प्रेम रखते थे ।
महर्षि अगत्य और लोपामुद्रा की जय
आगे की कथा आगे भाग में …