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India Speak Daily > Blog > धर्म > सनातन हिंदू धर्म > काशी में जीवन पर्यन्त “काशी” और “विश्वनाथ दरबार” को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिये।
सनातन हिंदू धर्म

काशी में जीवन पर्यन्त “काशी” और “विश्वनाथ दरबार” को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिये।

ISD News Network
Last updated: 2024/01/05 at 8:01 PM
By ISD News Network 161 Views 5 Min Read
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अजय शर्मा काशी । चना-चबेना गंग जल, जो पुरवे करतार। काशी कबहुं न छाड़िये, विश्वनाथ दरबार।।

काशी में जीवन पर्यन्त “काशी” और “विश्वनाथ दरबार” को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिये। दरबार का अर्थ संपूर्ण काशी ही है भगवान शिव भगवान राम का दरबार।

काशी तो काशी है,त्रेतायुग में श्रीराम और द्वापरयुग में श्रीकृष्ण कलयुग में श्री बिंदुमाधव काशी में ही समाहित है क्योंकि काशी में सतयुग परमब्रह्म श्रीशिव सदैव विद्यमान रहते है।

भुक्ति-मुक्ति प्रदायिनी काशी के विषय में यहाँ तक शास्त्र प्रमाण है । धर्म ही बाण है,कलियुग’ ही लक्ष्य है,ऐसे विशिष्ट धनुष को धारण करने वाले शिव की त्रिशूल पर स्थित काशी देह-धारियों को तीनों ऋणों से मुक्त करती है।काशी को आप जिसरूप में देखेंगे ,काशी आपको उस रूप में नजर आएंगी।

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त्रेतायुग में इक्ष्वाकु वंशज का काशी प्रेम राजा इक्ष्वाकु से प्रारंभ होकर भगवान राम या आदि सूर्यवंशी राजाओं तक देखते बनाता है। जिसका प्रमाण काशीखंड में वर्णित उनके द्वारा स्थापित शिवलिंग और तीर्थ देते है।

भगवान शिव काशी में अवस्थित तीर्थो में उक्त वंश के तीर्थो का वर्णन इस प्रकार कहते

ततस्तु रामतीर्थं च बीर रामेश्वराऽग्रतः।
तत्तीर्थस्नानमात्रेण वैष्णवं लोकमाप्नुयात्॥

हे वीर! तदनन्तर रामेश्वर के आगे रामतीर्थ है, उसमें केवल स्नान करने ही से विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। फिर समस्त अघसमूहों का नाशक इक्ष्वाकुतीर्थ है। वहीं के नहाने से मनुष्य वेत्रात्मा हो जाता है। उसके आगे राजर्षि हरिश्चन्द्र का उत्तम तीर्थ है, जहाँ के स्नान करने से मनुष्य कहीं भी सत्य से च्युत नहीं होने पाता। हे वीर! हरिश्चन्द्र के तीर्थ में जो कुछ सत्कर्म किया जाता है, वह इस लोक और परलोक में भी अक्षय फल देता है।

चंद्रेश्वर कोकावराह से भी दिलीपेश्वर के समीप ही में दिलीपतीर्थ बहुत श्रेष्ठ है, जो तुरन्त ही परमपापनाशक है। तदनन्तर सगरतीर्थ है, जो सगरेश्वर के पास में है ।वहाँ स्नान करने से मनुष्य कभी दुःख सागर में नहीं डूबता। ब्रह्मनाल के दक्षिण भागीरथी तीर्थ है, जो मनुष्य वहाँ पर स्नान करता है, वह सम्पूर्ण ब्रह्महत्या से भी छूट जाता है। स्वर्गद्वार के सन्निधान में ही भागीरथीश्वर लिंग के दर्शन करने से ब्रह्महत्या के पाप का पुरश्चरण हो जाता है।

हे वीर ! मान्धातृ नामक तीर्थ उससे भी श्रेष्ठ है। राजा मांधाता ने वहीं पर चक्रवर्ती का पद प्राप्त किया था।

रामेश्वरान्महाक्षेत्राज्जटीदेवः समागतः।
एकदन्तोत्तरे भागे सोऽर्चितः सर्वकामदः।।
अयोध्या वायुकोणे तु सोमेश्वरसमीपतः।
यत्र रामेश्वरं लिङ्गं वसेत्सीतापतिः स्वयम्।।

रामेश्वर महाक्षेत्र (सेतुबन्ध) से जटी देव यहाँ आये हैं। वे एकदन्त गणेश के उत्तरभाग में हैं। उनका पूजन करने से वे सभी कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं। अयोध्या सोमेश्वर के समीप वायुकोण में जहाँ रामेश्वर लिङ्ग है और भगवान् सीतापति राम स्वयं यहाँ वास करते हैं।

बड़ादेव) वैद्यनाथ के पूर्व में देवताओं को वर प्रदान करने वाला मुचुकुन्देश्वर नामक पूर्वाभिमुख लिङ्ग स्थित है।

अन्यदायतनं वक्ष्ये वाराणस्यां सुरेश्वरि।
रामेण स्थापितं लिङ्गं लङ्कायाश्चागतेन हि॥
हत्या लङ्केश्वरं विप्र रघुनाथप्रतिष्ठितम्॥
तल्लिङ्गस्पर्शनादाशु ब्रह्माऽपि विशुद्धयति।।
अन्यदायतनं वक्ष्ये वाराणस्यां सुरेश्वरि।
रामेण स्थापितं लिङ्गं लङ्कायाश्चागतेन हि।।

महादेव माता पार्वती से कहते है- अब मैं वाराणसी में स्थित अन्य लिङ्गों का वर्णन करूँगा। लंका से लौटकर श्रीरामचन्द्र जी ने एक लिङ्ग स्थापित किया है। लंकेश्वर को मारकर रघुनाथ के स्थापित उस रघुनाथेश्वर लिंग के स्पर्श करने से ब्रह्मघाती मनुष्य भी तुरत ही शुद्ध हो जाता है। हे सुरेश्वरि! लंका से आकर राम द्वारा वाराणसी में स्थापित लिङ्ग को मैं विशिष्ट (अन्य) स्वरूप में देखता हूँ।

भगवान कार्तिक जी महात्मा अगस्त जी से कहते हैं–

केदारेश्वर से दक्षिणापथ में चन्द्रवंशीय और सूर्यवंशीय राजाओं के स्थापित किये हुए सैकड़ों / सहस्रों लिंग विद्यमान हैं । केदारेश्वर के वायव्यकोण पर अंबरीषेश्वर के दर्शन करने से मनुष्य दुःखमय संसार में गर्भवास की यातना नहीं भोगने पाता।तब फिर महापातकनाशक अम्बरीषतीर्थ है । वहाँ पर शुभकर्म करने वाले लोग कभी गर्भभागी नहीं होते।

अंबरीषेश्वर के पास में इन्द्रद्युम्नेश्वर नामक लिंग का पूजन करने से मनुष्य तेजोमय विमान पर चढ़कर स्वर्गलोक में आनन्द करता है। इन्द्रद्युम्नेश्वर के सम्मुख ही इन्द्रद्युम्न महातीर्थ है, वहाँ की जलक्रिया के करने से इन्द्रलोक प्राप्त होता है।

भगवान बिंदुमाधव (नारायण) काशी में अपने अनेक स्वरूप बताते हुऐ कहते हैं–

नारायणाः शतं पञ्च शतं च जलशायिनः ।
त्रिंशत्कमठरूपाणि मत्स्यरूपाणि विंशतिः।।
गोपालाश्च शतं साष्टं बुद्धाः सन्ति सहस्रशः।
त्रिंशत्परशुरामाश्च रामा एकोत्तरं शतम्।।

काशी में मेरी पाँच सौ मूर्तियाँ नारायणरूप की, एक सौ जलशायीरूप की, तीस कच्छपरूप की, बीस मत्स्यरूप की, एक सौ आठ गोपालरूप की, सहस्रशः बौद्धरूप की, तीस परशुरामरूप की और एक सौ एक रामरूप की हैं। ✍🏻……अजय शर्मा काशी

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ISD News Network January 5, 2024
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