श्वेता पुरोहित। राक्षस मारीच श्रीराम के प्रभाव को अच्छी तरह जानता था। वह उनसे बहुत भयभीत था। सोने का मृग बनने के पहले उसका सामना श्री राम से दो बार हो चुका था।
जब रावण मारीच के पास दंडकारण्य में गया और उससे सोने के बने हुए मृग-जैसा रूप धारण करके रजतमय बिन्दुओंसे युक्त चितकबरे हो कर श्री राम के आश्रम में सीता जी के सामने विचरने का आदेश दिया जिससे रावण सीताजी का हरण कर सके तब रावण के मुख से श्रीरामचन्द्रजी की चर्चा सुनकर मारीच का मुँह सूख गया। मारीच भय से थर्रा उठ। वह अपलक नेत्रों से देखता हुआ अपने सूखे ओठों को चाटने लगा। उसे इतना दुःख हुआ कि वह मुर्दा-सा दिखायी देने लगा।
उसे महान् वन में श्रीरामचन्द्रजी के पराक्रम का ज्ञान हो चुका था; इसलिये वह मन-ही-मन अत्यन्त भयभीत और दुःखी हो गया तथा हाथ जोड़कर रावण से यथार्थ वचन बोला। उसकी वह बात रावणके तथा उसके लिये हितकर थी।
उसने रावण की ओर देखा और कहा ‘जनकनन्दिनी सीता तुम्हारे जीवन का अन्त करने के लिये तो नहीं उत्पन्न हुई है? कहीं ऐसा न हो कि सीता के कारण तुम्हारे ऊपर कोई बहुत बड़ा संकट आ जाय ?
‘तुम-जैसे स्वेच्छाचारी और उच्छृङ्खल राजा को पाकर लङ्कापुरी तुम्हारे और राक्षसों के साथ ही नष्ट न हो जाय ?
‘जो राजा तुम्हारे समान दुराचारी, स्वेच्छाचारी, पापपूर्ण विचार रखनेवाला और खोटी बुद्धिवाला होता है, वह अपना, अपने स्वजनों का तथा समूचे राष्ट्रका भी विनाश करता है।
‘तुम कोई गुप्तचर तो रखते नहीं और तुम्हारा हृदय भी बहुत ही चञ्चल है; अतः निश्चय ही तुम श्रीरामचन्द्रजीको बिलकुल नहीं जानते। वे पराक्रमोचित गुणोंमें बहुत बढ़े-चढ़े तथा इन्द्र और वरुणके समान हैं।
‘श्रीराम की पत्नी विदेहराजकुमारी सीता अपने ही पातिव्रत्यके तेजसे सुरक्षित हैं। जैसे सूर्यकी प्रभा उससे अलग नहीं की जा सकती, उसी तरह सीताको श्रीरामसे अलग करना असम्भव है। ऐसी दशामें तुम बलपूर्वक उनका अपहरण कैसे करना चाहते हो ?
‘श्रीराम प्रज्वलित अग्नि के समान हैं। बाण ही उस अग्नि की ज्वाला है। धनुष और खड्ग ही उसके लिये ईंधनका काम करते हैं। तुम्हें युद्ध के लिये सहसा उस अग्निमें प्रवेश नहीं करना चाहिये ।
‘जनककिशोरी सीता जिनकी धर्मपत्नी हैं, उनका तेज अप्रमेय है। श्रीरामचन्द्रजी का धनुष उनका आश्रय है, अतः तुममें इतनी शक्ति नहीं है कि वनमें उनका अपहरण कर सको। श्रीरामचन्द्रजी मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी हैं। ‘मिथिलेश कुमारी सीता ओजस्वी श्रीरामकी प्यारी पत्नी हैं। वे प्रज्वलित अग्निकी ज्वाला के समान असह्य हैं, अतः उन सुन्दरी सीतापर बलात् नहीं किया जा सकता।
‘राक्षसराज ! यह व्यर्थ का उद्योग करने से तुम्हें क्या लाभ होगा ? जिस दिन युद्ध में तुम्हारे ऊपर श्रीरामकी दृष्टि पड़ जाय, उसी दिन तुम अपने जीवन का अन्त समझना।
‘निशाचरराज ! मैं तो समझता हूँ कि कोसल- राजकुमार श्रीरामचन्द्रजी के साथ तुम्हारा युद्ध करना उचित नहीं है। अब पुनः मेरी एक बात और सुनो, यह तुम्हारे लिये बहुत ही उत्तम, उचित और उपयुक्त सिद्ध होगी’।
‘एक समय की बात है कि मैं अपने पराक्रम के अभिमान में आकर पर्वत के समान शरीर धारण किये व इस पृथ्वीपर चक्कर लगा रहा था। उस समय मुझ में एक हजार हाथियों का बल था।
‘मेरा शरीर नील मेघ के समान काला था। मैंने कानों में पक्के सोने के कुण्डल पहन रखे थे। मेरे मस्तकपर किरीट था और हाथ में परिघ। मैं ऋषियों के मांस खाता और समस्त जगत्के मन में भय उत्पन्न करता हुआ दण्डकारण्य में विचर रहा था।
‘उन दिनों धर्मात्मा महामुनि विश्वामित्र को मुझ से बड़ा भय हो गया था। वे स्वयं राजा दशरथ के पास गये और उनसे इस प्रकार बोले –
‘नरेश्वर! मुझे मारीच नामक राक्षस से घोर भय प्राप्त हुआ है, अतः ये श्रीराम मेरे साथ चलें और पर्वके दिन एकाग्रचित्त हो मेरी रक्षा करें’।
‘मुनिके ऐसा कहनेपर उस समय धर्मात्मा राजा दशरथने महाभाग महामुनि विश्वामित्रको इस प्रकार उत्तर दिया –
‘मुनिश्रेष्ठ ! रघुकुलनन्दन रामकी अवस्था अभी बारह वर्ष से भी कम है। इन्हें अस्त्र-शस्त्रों के चलानेका पूरा अभ्यास भी नहीं है। आप चाहें तो मेरे साथ मेरी सारी सेना वहाँ चलेगी और मैं चतुरङ्गिणी सेनाके साथ स्वयं ही चलकर आपकी इच्छाके अनुसार उस शत्रुरूप निशाचरका वध करूँगा’। ‘राजा के ऐसा कहनेपर मुनि उनसे इस प्रकार बोले-‘उस राक्षस के लिये श्रीराम के सिवा दूसरी कोई शक्ति पर्याप्त नहीं है।
‘राजन् ! इसमें संदेह नहीं कि आप समरभूमि में देवताओं की भी रक्षा करने में समर्थ हैं। आपने जो महान् कार्य किया है, वह तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है।
‘शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! आपके पास जो विशाल सेना है, वह आपकी इच्छा हो तो यहीं रहे (आप भी यहीं रहें)। महातेजस्वी श्रीराम बालक हैं तो भी उस राक्षस का दमन करने में समर्थ हैं, अतः मैं श्रीराम को ही साथ लेकर जाऊँगा; आपका कल्याण हो’।
‘ऐसा कहकर (लक्ष्मणसहित) राजकुमार श्रीराम को साथ ले महामुनि विश्वामित्र बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने आश्रम को गये।
‘इस प्रकार दण्डकारण्य में जाकर उन्होंने यज्ञ के लिये दीक्षा ग्रहण की और श्रीराम अपने अद्भुत धनुषकी टङ्कार करते हुए उनकी रक्षा के लिये पास ही खड़े हो गये।
‘उस समय तक श्रीराम में जवानी के चिह्न प्रकट नहीं हुए थे। (उनकी किशोरावस्था थी।) वे एक शोभाशाली बालकके रूपमें दिखायी देते थे। उनके श्रीअङ्गका रंग साँवला और आँखें बड़ी सुन्दर थीं। वे एक वस्त्र धारण किये, हाथोंमें धनुष लिये सुन्दर शिखा और सोनेके हारसे सुशोभित थे। ‘उस समय अपने उद्दीत तेजसे दण्डकारण्य की शोभा बढ़ाते हुए श्रीरामचन्द्र नवोदित बालचन्द्र के समान दृष्टिगोचर होते थे।
‘इधर मैं (मारीच) भी मेघ के समान काले शरीर से बड़े घमंड के साथ उस आश्रम के भीतर घुसा। मेरे कानोंमें तपाये हुए सुवर्णके कुण्डल झलमला रहे थे। मैं बलवान् तो था ही, मुझे वरदान भी मिल चुका था कि देवता मुझे मार नहीं सकेंगे।
‘भीतर प्रवेश करते ही श्रीरामचन्द्रजी की दृष्टि मुझपर पड़ी। मुझे देखते ही उन्होंने सहसा धनुष उठा लिया और बिना किसी घबराहटके उसपर डोरी चढ़ा दी। ‘मैं मोहवश श्रीरामचन्द्रजी को ‘यह बालक है’ ऐसा समझकर उनकी अवहेलना करता हुआ बड़ी तेजी के साथ विश्वामित्र की उस यज्ञवेदी की ओर दौड़ा। ‘इतनेही में श्रीराम ने एक ऐसा तीखा बाण छोड़ा, जो (मैं मरा नहीं) सौ योजन दर समुद्रमें आकर गिर पड़ा शत्रुका संहार करनेवाला था; परंतु उस बाणकी चोट खाकर (मैं मरा नहीं) सौ योजन दूर समुद्रमें आकर गिर पड़ा। ‘तात ! वीर श्रीरामचन्द्रजी उस समय मुझे मारना नहीं चाहते थे, इसीलिये मेरी जान बच गयी। उनके बाणके वेगसे मैं भ्रान्तचित्त होकर दूर फेंक दिया गया और समुद्रके गहरे जलमें गिरा दिया गया। तात रावण ! फिर दीर्घकाल के पश्चात् जब मुझे चेत हुआ, तब मैं
लंकापुरीमें गया।
‘इस प्रकार उस समय मैं मरनेसे बचा। अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीराम उन दिनों अभी बालक थे और उन्हें अस्त्र चलानेका पूरा अभ्यास भी नहीं था तो भी उन्होंने मेरे उन सभी सहायकोंको मार गिराया, जो मेरे साथ गये थे। ‘इसलिये मेरे मना करनेपर भी यदि तुम श्रीरामके साथ विरोध करोगे तो शीघ्र ही घोर आपत्तिमें पड़ जाओगे और अन्तमें अपने जीवनसे भी हाथ धो बैठोगे।
‘इस प्रकार इस समय तो मैं किसी तरह श्रीरामचन्द्रजीके हाथसे जीवित बच गया। उसके बाद इन दिनों जो घटना घटित हुई है, उसे भी सुन लो। ‘श्रीराम ने मेरी वैसी दुर्दशा कर दी थी, तो भी मैं उनके विरोध से बाज नहीं आया। एक दिन मृगरूपधारी दो राक्षसों के साथ मैं भी मृग का ही रूप धारण करके दण्डकवन में गया।
‘मैं महान् बलशाली तो था ही, मेरी जीभ आग के समान उद्दीप्त हो रही थी। दाढ़ें भी बहुत बड़ी थीं, सींग तीखे थे और मैं महान् मृगके रूप में मांस खाता हुआ दण्डकारण्यमें विचरने लगा। ‘रावण ! मैं अत्यन्त भयंकर रूप धारण किये अग्निशालाओंमें, जलाशयोंके घाटोंपर तथा देववृक्षोंके नीचे बैठे हुए तपस्वीजनोंको तिरस्कृत करता हुआ सब ओर विचरण करने लगा।
‘दण्डकारण्यके भीतर धर्मानुष्ठानमें लगे हुए तापसोंको मारकर उनका रक्त पीना और मांस खाना यही मेरा काम था। ‘मेरा स्वभाव तो क्रूर था ही, मैं ऋषियोंके मांस खाता और वनमें विचरनेवाले प्राणियोंको डराता हुआ रक्तपान करके मतवाला हो दण्डकवनमें घूमने लगा।
‘इस प्रकार उस समय दण्डकारण्य में विचरता हुआ धर्मको कलङ्कित करनेवाला मैं मारीच तापस धर्मका आश्रय लेनेवाले श्रीराम, विदेहनन्दिनी महाभागा सीता तथा मिताहारी तपस्वीके रूप में समस्त प्राणियों के हितमें तत्पर रहनेवाले महारथी लक्ष्मणके पास जा पहुँचा। ‘वनमें आये हुए महाबली श्रीरामको ‘यह एक तपस्वी है’ ऐसा जानकर उनकी अवहेलना करके मैं आगे बढ़ा और पहलेके वैरका बारंबार स्मरण करके अत्यन्त कुपित हो उनकी ओर दौड़ा। उस समय मेरी आकृति मृगके ही समान थी। मेरे सींग बड़े तीखे थे। उनके पहलेके प्रहारको याद करके मैं उन्हें मार डालना चाहता था। मेरी बुद्धि शुद्ध न होने के कारण मैं उनकी शक्ति और प्रभावको भूल-सा गया था।
‘हम तीनों को आते देख श्रीराम ने अपने विशाल धनुषको खींचकर तीन पैने बाण छोड़े, जो गरुड़ और वायुके समान शीघ्रगामी तथा शत्रुके प्राण लेनेवाले थे। ‘झुकी हुई गाँठ वाले वे सब तीनों बाण, जो वज्रके समान दुःसह, अत्यन्त भयंकर तथा रक्त पीनेवाले थे, एक साथ ही हमारी ओर आये।
‘मैं तो श्रीरामके पराक्रमको जानता था और पहले एक बार उनके भयका सामना कर चुका था, इसलिये शठतापूर्वक उछलकर भाग निकला। भाग जानेसे मैं तो बच गया; किंतु मेरे वे दोनों साथी राक्षस मारे गये।
‘इस बार श्रीराम के बाणसे किसी तरह छुटकारा पाकर मुझे नया जीवन मिला और तभी से संन्यास लेकर समस्त दुष्कर्मों का परित्याग करके स्थिरचित्त हो योगाभ्यास में तत्पर रहकर तपस्या में लग गया।
‘अब मुझे एक-एक वृक्षमें चीर, काला मृगचर्म और धनुष धारण किये श्रीराम ही दिखायी देते हैं, जो मुझे पाशधारी यमराज के समान प्रतीत होते हैं। ‘रावण ! मैं भयभीत होकर हजारों रामों को अपने सामने खड़ा देखता हूँ। यह सारा वन ही मुझे राममय प्रतीत हो रहा है।
‘राक्षसराज ! जब मैं एकान्त में बैठता हूँ, तब मुझे श्रीराम के ही दर्शन होते हैं। सपनेमें श्रीरामको देखकर मैं उद्घान्त और अचेत-सा हो उठता हूँ।
‘यदि शूर्पणखा का बदला लेनेके लिये जनस्थान निवासी खर पहले श्रीरामपर चढ़ाई करनेके लिये गया और अनायास ही महान् कर्म करनेवाले श्रीरामके हाथसे मारा गया तो तुम्हीं ठीक-ठीक बताओ, इसमें श्रीरामका क्या अपराध है ?
‘रावण! मैं राम से इतना भयभीत रत्न और रथ आदि जितने भी रकारादि नाम हैं। वे मेरे कानों में पडते ही मनमें भारी भय उत्पन्न कर देते हैं। हो गया हूँ कि ‘मैं उनके प्रभाव को अच्छी तरह जानता हूँ।
इस तरह मारीच ने रावण को समझाने का बहुत प्रयास किया लेकिन रावण नहीं माना।
ऋषि विश्वामित्र द्वारा रचित श्रीरामरक्षा स्त्रोत्र का नित्य पाठ बहुत लाभदायक होता है।
आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्ग संगिनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणावग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥
अर्थ:- संधान किए धनुष धारण किए, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणों से युक्त तुणीर धारण किये हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें।