श्वेता पुरोहित। (लेखक – ‘ श्रीयुगलचरणरजोऽभिलाषी’) पुराणों और इतिहासों में श्रीहनुमच्चरित्र का अनेक रूपों में वर्णन मिलता है। श्रीहनुमानजी कहीं ‘शंकर- सुवन’, कहीं ‘केसरीनन्दन’, कहीं ‘पवनतनय’, कहीं ‘आञ्जनेय’ और कहीं ‘साक्षात् शंकर’ के रूपमें वर्णित हैं। कल्प-भेद एवं प्रसङ्ग भेदसे ये सभी नाम सत्य हैं। जिस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण को प्रसङ्ग-भेद से वसुदेव नन्दन, नन्द-सुवन, गिरिधारी, रासविहारी, वंशीधारी आदि कहा जाता है, वैसे ही रामभक्त श्रीहनुमान के विषय में भी समझना चाहिये। श्रीहनुमानजी के इन नामों का सार्थक्य समझने के लिये कतिपय रहस्यपूर्ण प्रसङ्गों का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है।
‘रुद्रावतार’ श्रीहनुमान
एक बार भगवान् शंकर भगवती सती के साथ कैलास-पर्वतपर विराजमान थे। प्रसङ्गवश भगवान् शंकरने सती से कहा- ‘प्रिये! जिनके नामों को रट- रटकर मैं गद्गद होता रहता हूँ, वे ही मेरे प्रभु अवतार धारण करके संसारमें आ रहे हैं। सभी देवता उनके साथ अवतार ग्रहण करके उनकी सेवाका सुयोग प्राप्त करना चाहते हैं, तब मैं ही उससे क्यों वञ्चित रहूँ? मैं भी वहीं चलूँ और उनकी सेवा करके अपनी युग- युग की लालसा पूर्ण करूँ।’
भगवान् शंकर की यह बात सुनकर सती ने सोचकर कहा- ‘प्रभो ! भगवान्का अवतार इस बार रावणको मारनेके लिये हो रहा है। रावण आपका अनन्य भक्त है। यहाँतक कि उसने अपने सिरोंको काटकर आपको समर्पित किया है। ऐसी स्थितिमें आप उसको मारनेके काममें कैसे सहयोग दे सकते हैं?’
यह सुनकर भगवान् शंकर हँसने लगे। उन्होंने कहा- ‘देवि! जैसे रावणने मेरी भक्ति की है, वैसे ही उसने मेरे एक अंशकी अवहेलना भी तो की है। तुम जानती ही हो कि मैं ग्यारह स्वरूपोंमें रहता हूँ। जब उसने अपने दस सिर अर्पित कर मेरी पूजा की थी, तब उसने मेरे एक अंशको बिना पूजा किये ही छोड़ दिया था। अब मैं उसी अंशसे उसके विरुद्ध युद्ध करके अपने प्रभुकी सेवा कर सकता हूँ। मैंने वायु देवताके द्वारा अञ्जनाके गर्भसे अवतार लेनेका निश्चय किया है।’ यह सुनकर भगवती सती प्रसन्न हो गयीं।
इस प्रकार भगवान् शंकर ही श्रीहनुमानके रूपमें अवतरित हुए, इस तथ्यकी पुष्टि पुराणोंकी आख्यायिकाओंसे होती है। गोस्वामी तुलसीदासजीने भी दोहावली (१४२)- में लिखा है-
जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान।
‘शंकरसुवन’ श्रीहनुमान
शिवपुराणान्तर्गत श्रीहनुमान जन्म का संक्षिप्त वृत्तान्त इस प्रकार है- एक समय भगवान् शम्भु को भगवान् विष्णु के मोहिनी रूप का दर्शन प्राप्त हुआ। उस समय ईश्वरेच्छा से रामकार्य की सिद्धि हेतु उनका वीर्य स्खलित हो गया। उस वीर्य को सप्तर्षियोंने पत्र-पुटक में सुरक्षित करके रख दिया। तत्पश्चात् उन्होंने ही शम्भु की प्रेरणा से उस वीर्य को गौतम-कन्या अञ्जनामें कान के रास्ते स्थापित किया। समय आनेपर उस गर्भसे वानर शरीरधारी महापराक्रमी पुत्रका जन्म हुआ, जो शंकरसुवन श्रीहनुमानके नामसे विश्वमें विख्यात हुए।
कथान्तर-भेदसे इसका वर्णन इस प्रकार भी है- मोहिनी-रूप-दर्शनसे स्खलित हुए शम्भु-वीर्यके विषयमें भगवान् विष्णु विचार करने लगे कि इस शम्भु-सम्भूत शुक्रका क्या उपयोग किया जाय? कुछ सोच-विचारकर उन दोनों (विष्णु और शम्भु) ने मुनियोंका रूप धारण किया और उस वीर्यको पत्र द्रोणमें लेकर वन-ही- वन आगे बढ़े। कुछ दूर जानेपर उन लोगोंने एक कन्या देखी, जो घोर तपस्यामें निरत थी। वे उसके पास जाकर बोले- ‘तपस्विनी कन्ये! यह क्या कर रही हो? बिना दीक्षा लिये तुम्हारी तपस्या सफल नहीं हो सकती; अतः शीघ्र ही किसी योग्य मुनिसे दीक्षा ले लो।’ तपोनिष्ठ कन्या अञ्जनाने उन दोनों मुनियोंकी बात सुनकर मनमें विचार किया- ‘ये तो सर्वकालद्रष्टा हैं। मेरे भूतकाल की बातको सत्य-सत्य कह रहे हैं, अतः क्यों न इन्हींसे मन्त्र-दीक्षा ले ली जाय।’ यह सोचकर अञ्जना बोली- ‘मुनिवर! आप योग्य एवं समर्थ हैं। मैं दीक्षित होनेके लिये और कहाँ भटकूँगी; आपलोग ही मुझे मन्त्र-दीक्षा दे दें।’ तब मुनिरूपधारी विष्णु ने अञ्जना को मन्त्र-दीक्षा दी। दीक्षा देते समय उन्होंने शम्भु-वीर्यको मन्त्र से अभिमन्त्रित कर कानद्वारा अञ्जनाके गर्भमें स्थापित कर दिया। उस शम्भु-शुक्रसे उद्भूत श्रीहनुमानजी अञ्जनीनन्दन शंकरसुवन कहलाये।
‘पवनतनय’ श्रीहनुमान
अप्सराओंमें परम रूपवती पुञ्जिकस्थला नामकी एक लोकविख्यात अप्सरा थी। इसीने ऋषिके शापसे कामरूपिणी वानरी होकर पृथ्वीपर जन्म ग्रहण किया था। वही कपिश्रेष्ठ केसरीकी भार्या होकर ‘अञ्जना’ नामसे विख्यात हुई। पर्वतश्रेष्ठ सुमेरुपर केसरी राज्यशासन करते थे। अञ्जना उनकी एक प्रियतमा पत्नी थी। वानरपति केसरी और अञ्जना दोनों एक दिन मनुष्यका वेष धारण कर पर्वत शिखरपर विहार कर रहे थे। अञ्जनाका मनोहर रूप देखकर पवनदेव मोहित हो गये और उन्होंने उसका आलिङ्गन किया। साधुचरित्रा अञ्जनाने आश्चर्यचकित होकर कहा- ‘कौन दुरात्मा मेरा पातिव्रत्य-धर्म नष्ट करनेको तैयार हुआ है? मैं अभी शाप देकर उसे भस्म कर दूँगी।’ सती साध्वी अञ्जनाकी यह बात सुनकर पवनदेवने कहा- ‘सुश्रोणि! मैंने तुम्हारा पातिव्रत्य नष्ट नहीं किया है; यदि तुम्हें कुछ भी संदेह हो तो उसे दूर कर दो। मैंने मानसिक संस्पर्श किया है। उससे तुम्हें एक पुत्र होगा, जो शक्ति एवं पराक्रममें मेरे समान होगा, भगवान्का सेवक होगा और बल-बुद्धिमें अनुपमेय होगा। मैं उसकी रक्षा करूँगा।’ इस प्रकार भगवान् शंकरने अंशरूपसे वायुका माध्यम लेकर अञ्जनाके गर्भसे पुत्र उत्पन्न किया, जो भविष्यमें शंकरसुवन, केसरीनन्दन, पवनपुत्र, आञ्जनेय आदि कहलाया। वे ही श्रीहनुमान अपनी अद्वितीय सेवा- चर्यासे भगवान् श्रीरामके अभिन्न अङ्ग बन गये।
ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान् श्रीराम पितृ- वचनका पालन करके जब अयोध्या लौटे, तब भगवती सीतादेवी स्वयं रन्धनकर श्रीहनुमानको भोजन कराने लगीं। अन्न-व्यञ्जनादि जितना ही परोस दिया जाता, श्रीहनुमान बात-की-बातमें सभी चट कर जाते। तब भगवती सीता ने निरुपाय हो श्रीहनुमानके पश्चात्-भागमें ‘ॐ नमः शिवाय’ कहकर अन्न परोसा। ऐसा करनेसे श्रीहनुमान तृप्त हो गये! यों करनेका यही उद्देश्य था कि सबको यह ज्ञात हो जाय कि श्रीहनुमानजी भगवान् शिवके अवतार हैं।
श्रीहनुमानजी ने अपनी अद्भुत वीरता, अनवरत सेवा, आदर्श चरित्र, अनन्य भक्ति आदि अनन्त सद्गुणोंसे केवल अपना ही जीवन सफल नहीं किया तथा लोक में केवल महान् आदर्श की ही प्रतिष्ठा नहीं की, अपितु वे जिनके अवतार एवं अंश थे, उन भगवान् शंकर, सर्वपूज्य पवनदेव, कपिश्रेष्ठ केसरी तथा माता अञ्जना की परमोज्ज्वल कीर्ति का भी चतुर्दिक् विस्तार किया।
ऐसे शंकर सुवन श्री हनुमानजी की जय
जय श्री राम