श्वेता पुरोहित। भाँगरी मनिहारिन नवम्बर, सन् १९५७ में कानपुर में श्री सर्व वैदिक शाखा- सम्मेलन हुआ था। उस अवसर पर काशी के विद्वान् पं० श्री लाल बिहारी जी मिश्र से (अध्यापक श्री गोयन का संस्कृत- महाविद्यालय) हमारी कुछ परलोक-सम्बन्धी बातें होने लगीं। आपने अपनी पूरी जाँच की हुई कुछ परलोक-सम्बन्धी घटनाएँ सुनायी थीं।
सकलडीहा स्टेशन से (जिला वाराणसी) तीन कोस उत्तर की ओर प्रभुपुर नामक एक ग्राम है। उसी ग्राममें भाँगरी नामक एक मुसलमान स्त्री थी, जो काँच की चूड़ियाँ बेचने वाले मुसलमान मनिहार की पत्नी थी। एक बार उस भाँगरीके पड़ोसकी एक स्त्री सांघातिक रोग से पीड़ित थी। भाँगरी उसकी बीमारी का समाचार सुनकर उस स्त्रीको देखने गयी। उसे देखने के पश्चात् ज्यों ही लौटकर वह अपने घर आयी तो अचानक ही उसकी मृत्यु हो गयी। अपने घर से उस बीमार स्त्रीके पास जानेसे पहले वह बिलकुल ही स्वस्थ थी। उसे किसी भी प्रकारका कोई रोग नहीं था।
भाँगरी मुसलमान थी। उसे मुसलमानी प्रथा के अनुसार दफनाने की क्रिया करनी प्रारम्भ कर दी गयी। उसे दफनाने के लिये गाँव से बाहर जंगलके कब्रिस्तानमें एक गड्डा भी खोद लिया गया और भाँगरीके शव को वस्त्रों से लपेट कर सी दिया गया; किंतु जब उसे कब्र में दफनाने के लिये रखा जाने लगा तो वह एकाएक जीवित हो गयी। उसके मुख से कुछ अव्यक्त से शब्द निकले। उसने अपने हाथके संकेत से अपने मुखपर से कपड़ा हटाने के लिये कहा। जब उसके मुखपर से कपड़ा हटाया गया तो उस समय लोगों ने बड़े ही आश्चर्य के साथ देखा कि उसका सिर जो पहले बिलकुल ठीक-ठाक था; अब उसमें जलने के तीन निशान बने हैं, मानो किसी ने उसे त्रिशूल गरमाकर दाग दिया हो। उसके कुछ केश भी जल गये थे। बादमें जब तक भाँगरी जीवित रही, तब तक वे केश बराबर जले ही रहे। वह त्रिशूलका निशान भी उसके मरने तक बराबर इसी प्रकार बना रहा। लोगों ने इसका कारण पूछा तो उन्हें भाँगरी ने बताया-
‘मैं बिलकुल ठीक-ठाक थी। मुझे कोई रोग नहीं था। एकाएक मेरे सामने दो व्यक्ति आये। वे मुझे पकड़कर अपने साथ कहीं बहुत दूर ले गये। वे मुझे जहाँ ले गये, वहाँ मैंने देखा कि एक बहुत बड़ी सभा लगी हुई थी। एक ऊँचे आसनपर एक बड़ा ही तेजस्वी व्यक्ति बैठा हुआ था। उस तेजस्वी व्यक्तिने उन दोनों व्यक्तियों को, जिन्होंने मुझे उसके सामने ले जाकर उपस्थित किया था, बहुत ही फटकारा कि ‘तुम इसे यहाँ क्यों ले आये हो? इसकी मृत्यु अभी नहीं लिखी थी। इसकी तो आयु अभी चौदह वर्ष और बाकी है। तुम्हें तो हमने इसके पड़ोसकी जो स्त्री बीमार है, उसे लानेके लिये भेजा था। यह स्त्री बड़ी पापात्मा है। जब यह अपनी आँखोंसे अपनी दोनों लड़कियोंके मरनेका दुःख देख लेगी, तभी मरेगी। तुम लोगोंने इसे व्यर्थ कष्ट दिया है; इसलिये इसके हित की दृष्टि से त्रिशूल से इसके सिर को दाग दो, ताकि इसे अब जीनेके बाद यहाँपर आनेकी बात याद रहे। यह पापोंसे बचे।’ उन्होंने मुझे झटसे त्रिशूल से दाग दिया। इसी कारण ये मेरे सिर के केश जल गये हैं और मेरे सिरपर उनका लगाया त्रिशूलका निशान बना हुआ है।’
भाँगरी की बतायी हुई चारों ही बातें सत्य सिद्ध हुईं। सिर में यमदूतों द्वारा लगाया चिह्न जीवनभर बना रहा। जिस समय भाँगरी जीवित हुई थी, उसी समय उसके पड़ोस की बीमार स्त्री का देहावसान हो गया। १४ वर्ष के भीतर ही सचमुच भाँगरी के सामने उसकी दोनों लड़कियाँ मरीं। उनके मरनेका घोर दुःख उसे अपनी आँखोंसे देखनेको मिला। १४ वर्ष पूरे कर वह १५ वें वर्ष में मर गयी।
परलोक और पुनर्जन्म की सत्य घटनाएँ पुस्तक का एक अंश